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ख़ौफ के बाहर / दिविक रमेश
Kavita Kosh से
मैं चौंका जब कहा उसने
कि जब भी चाहा घर लौटना
लगता रहा ख़ौफ
गो कि हर्ज़ न था लौटने में
सोचता हूँ
लौटना तो चाहिए ही घर
जबकि रहना पड़ रहा हो कहीं
घर लौटने ही की तरह
लौटना
घर
दरअसल होता है
लौटना ख़ुद अपने में ।
घर
जब तक रहता है घर
कभी ख़त्म नहीं होती
उसकी द्वार-आँखों की
बेचैन उत्सुकताएँ
उसके आँगन-हृदय की
मचलती प्रतीक्षाएँ