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ख़्वाबों के नए मेघ / सुधांशु उपाध्याय
Kavita Kosh से
खिड़की से अलग होती
सलाख़ की तरह हूँ
तुम शाख से जुड़ते हुए पत्तों की तरह हो
मैं पेड़ से जुड़ती हुई शाखों की तरह हूँ
जंगल में कटे पेड़ तो
बढ़ जाए अन्धेरा
पाँवों से लिपट साँप-सा
चढ़ जाए अन्धेरा
तुम दूर बहुत दूर, बहुत दूर गगन में
उड़ने को मैं खुलती हुई पाँखों की तरह हूँ
क्षितिजों से कहीं दूर नई
दुनिया भी कहीं है
आवाज़ मगर उस ओर से
आती ही नहीं है
मैं तुमको उड़ानों की नई तर्ज बताऊँ
ख़्वाबों के नए मेघ लिए आँखों की तरह हूँ
मजबूर अगर बर्फ़ है तो
है आग भी मजबूर
है आम चेहरा बस्तियों का
हो गया बेनूर
जो बाँध लूँ मुट्ठी तो निज़ामों को बदल दूँ
मैं एक अकेला कई लाखों की तरह हूँ