ख़्वाब आँखों में बसा रहता है
दिल पे इक बोझ बना रहता है
पत्तियाँ झड़ती हैं जिस मौसम में
आदमी ख़ुद से ख़फा रहता है
दश्त में कोई नहीं मेरे सिवा
फिर भी इक डर सा लगा रहता है
पाँव रह जाते हैं चलते चलते
साथ बस दस्त-ए-दुआ रहता है
हाल क्या पूछ रहे हो मेरा
आग बुझ जाए तो क्या रहता है
दिल का मैदान क़यामत है ‘सुहैल’
रोज़ इक हश्र बपा रहता है