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ख़्वाब वह रोज़ ही सजाती है / बाबा बैद्यनाथ झा
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ख़्वाब वह रोज़ ही सजाती है
नीन्द में ही मुझे बुलाती है
सामने देखकर लजा जाती
मुस्कुरा कर सदा रिझाती है
मूड बनता तो नाचने लगती
गीत मेरे ही गुनगुनाती है
देखकर मैं जो नाचने लगता
मुँह फुलाकर वो रूठ जाती है
भेंट करता कभी निकट जाकर
बात दिल की नहीं बताती है
कह रही इश्क़ की कई ग़ज़लें
मंच पर ही उसे सुनाती है