भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ख़्वाब सच के रुबरु करते रहे/ राज़िक़ अंसारी
Kavita Kosh से
ख़्वाब सच के रुबरु करते रहे
ज़ख़्म आंखों के रफू करते रहे
काटना था रात का तन्हा सफ़र
ख़ुद से हम ख़ुद गुफ़्तगू करते रहे
खोल कर लब दोस्तों के सामने
दर्द को बे आबरु करते रहे
चाहते थे हम ताअल्लुक़ हो बहाल
आप रिश्तों का लहू करते रहे
रोज़ हम करते रहे इक आरज़ू
रोज़ क़त्ले आरज़ू करते रहे