भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ख़्वाब ही था ज़िन्दगी कितनी सहल हो जायेगी / अमित

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ख़्वाब ही था ज़िन्दगी कितनी सहल हो जायेगी
तुम जो गाओगे रुबाई भी ग़ज़ल हो जायेगी

इतने आईनों से गुज़रे हैं यक़ीं होता नहीं
अज़नबी सी एकदिन अपनी शकल हो जायेगी

मर्हले ऐसे भी आयेंगे नहीं मालूम था
उम्र भर की होशियारी बेअमल हो जायेगी

है बहुत मा’कूल फिर भी शक़ है मौसम पर मुझे
तज्रबा है अन्त में ग़ारत फ़सल हो जायेगी

साँस की क़श्ती ख़ुद अपना बोझ सह पाती नहीं
कोई दिन होगा कि हस्ती बेदखल हो जायेगी