ख़्वाब ही में रुख़-ए-पुर-नूर दिखाए कोई / रतन पंडोरवी
ख़्वाब ही में रुख़-ए-पुर-नूर दिखाए कोई
ग़म में राहत का भी पहलू नज़र आए कोई।
सामने उस के दिल ओ जान ओ जिगर मैं रख दूँ
हाँ मगर हाथ में ख़ंजर तो उठाए कोई।
अपने ही घर में मिला ढूँड रहे थे जिस को
उस के पाने के लिए ख़ुद ही को पाए कोई।
आ गई काली घटा झूम के मय-ख़ाने पर
तौबा कहती है कि मुझ को भी पिलाए कोई।
जब नज़र आता है वो जान-ए-तमन्ना दिल में
किस तमन्ना को लिए तूर पे जाए कोई।
ज़िंदगी क्या है फ़क़त मौत का जाम-ए-रंगीं
हस्त होना है तो हस्ती को मिटाए कोई।
हुस्न है महज़ जफ़ा इश्क़ है तस्वीर-ए-वफ़ा
रब्त का कुछ तो सबब मुझ को बताए कोई।
जज़्बा-ए-शौक़ उसे खींच के लाएगा यहाँ
आ नहीं सकता तो सौ बार न आए कोई।
दिल में यूँ पर्दा-नशीं रहने से हासिल क्या है
लुत्फ़ तो जब है 'रतन' सामने आए कोई।