भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खाँसी / कुमार वीरेन्द्र
Kavita Kosh से
पत्नी ने गमलों में तुलसी के
कुछ पौधे लगाए हैं कि पत्ते
खाँसी में काम
आते हैं; पत्नी ने तुलसी के पौधे क्या लगाए
हैं, बेटे को रोज़ ही खाँसी हुई रहती है; पत्नी रोज़ परेशान रहती है, बेटे की झूठमूठ की खाँसी से
कि किसी न किसी पौधे के पत्ते तनि बढ़ते ही तोड़ लिए जाते हैं; लाख समझाने के बावजूद, बेटा
अपनी खाँसी की अपनी ही धुन में; एक दिन पत्नी ने डाँटा, ‘अगर अब पत्ते बिना
पूछे तोड़े, तुम्हारे कान ऐंठूँगी, समझे’, फिर तो ऐसा — बेटे को खाँसी
तब होती है, जब मैं घर में रहता हूँ; जब नहीं रहता, और
तुलसी के पत्ते खाने की इच्छा हो, पत्नी की
छाती से लग कहता है, ‘मम्मी
तुम्हारी साँस तो
तेज़
चल रही है, लगता है — खाँसी
होनेवाली है; बोलो, लाऊँ क्या
तुसली के पत्ते !