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खांसती गरीबी / बाल गंगाधर 'बागी'

गरीबी झोपड़ी में खांसती रही
अमीरी कोठियों में हंसती रही
टाटियां झांकती दर्द के झरोखे से
फटे बादल की आंखें बरसती रही

हर औरत उनके आज कमतर दिखी
जो सवर्णांे के दिल मंे मचलती रही
गरीबी में अस्मिता ही इमारत थी
अमीरी कपड़ों में नंगी ढलती रही
ईंटों पे ईंट चढ़ गये कोठियों के
मेरे आटे खिसकता गये रोटियों से
बनाके इमारत वहाँ फिर न जाये
काटी गरीबों को अमीर कैंचियो ने

ढह ढह के लगता बदन ढह गया है
जुड़-जुड़ के कोई सनम बन गया है
तस्वीर मंे बंद यादों का झरना
उबल कर कोई भंवर बन गया है

पतलून टाईट व कोट पैंट बढ़कर
जाति के बुत पे चढ़ाये चढ़ बढ़कर
बड़ी गाड़ियों में अमीरी की बातें
जाम पे जाम चले गिरता छलक कर

देश का भविष्य तय बंद घर में होता है
सभी सफाई लिपाई पुताई का काम होता है
मक्खियां फिसलती हैं संगमरमरों पर
है नेता पर जनता पे ध्यान नहीं होता है

इंसान की जगह नहीं, गाड़ी में कुत्ते हैं
हमारी बस्ती से न भूल क्यों चलते हैं?
दुर्गंध का घर, दलित बस्ती बताकर के
वे कुत्ते चूमते हैं, पर अछूत हमें कहते हैं

मर्यादा पैसे के तराजू में तौलकर
अंग्रेजी चंद उल्टी सीधी बोलकर
गरीबों को गाली कमेंट मारते हैं
गाड़ी से गरीबी नहीं वह झांकते हैं

अफसर बापू सब दलाली फरमाते हैं
योजना परियोजना हड़प कर जाते हैं
क्यों बंद है गरीबी अमीरी के ताले में?
बैंक के बक्से में पैसा, जमा करके खाते हैं

पर्यटन पे जाते हैं जंगल व पहाड़ों में
सागर किनारे या प्राकृति खदानों में
आदिवासी जीवन सरलतम बताते हैं
अशिक्षित गरीबों का मजाक यूं बनाते हैं

जंगल खदानों को मिटा ही रहे हैं
हमें पहाड़ बीहड़ जंगल में भेजते रहे हैं
कारखाने लगाए दूषित चिमनियों के
हमारा सारा छीनकर, ये मारते रहे हैं

आवाज़ दबी जाती है, सत्ता के सामने
संपत्ति की ऊंची इमारत के सामने
संसाधन के ढेर पे कब्जा जमाये जो
दमन कर रहे हैं सार, जीने के मायने