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खाड़ी-युद्ध / गुलाब सिंह

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जंग छिड़ी है।
जले तेल के चूल्हे
पकती खाड़ी में
खूनी खिचड़ी है
जंग छिड़ी है।

धुआँ उठ रहा है
आँतों से
भरी-भरी मासूम निगाहें
पूछ रही हैं
औकातों से

तिल भर हमदर्दी को देनी
कितनी जानों की-
पगड़ी है?

खाती-पीती
चलती-फिरती,
देख रही दुनिया
कुत्ते की मौत
सड़क पर बातें करती,

कितने सही-गलत दावे हैं
किसकी फौज
बढ़ी-पिछड़ी है?

राष्ट्र संघ की
पेशानी पर,
तैर रहा है तेल
समन्दर के
पानी पर,

निर्गुट अपनी नाक देखते
गुटबाज़ों के हाथ
छड़ी है।

हँस कर
आग बेचने वाले,
खोल दिए हैं
बड़ी शराफत से
गोदाम पर लटके ताले,

आग और सोने के सौदों
पर ही तो
जागीर खड़ी है।

तहज़ीबों की तह में
नेकी नाम-नाम की
भरी बदी है,
फिर नकाब में
पत्थर युग के
पाँव पड़ी बीसवीं सदी है,

चाँद सरीखे चेहरों पर
नफ़रत से निकली
पीक पड़ी है।