भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खानाबदोश / तिथि दानी ढोबले

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उनका माथे पर रखना हाथ
वह नहीं होता
जो हमें अब तक सिखाया गया है
बल्कि छोड़ देना होता है
किस्मत का साथ

उनकी जिंदगी कोसती है
उनकी किस्मत को,
उन्हें कमजोर पड़ता देख कर
वह होना चाहती है खुद खुश
पहचान कर अपना वजूद
उनका सिरहाना बने पत्थरों में।
इठलाना चाहती है इसी बात पर

भेजती है ज़िंदगी
किस्मत को बार बार उनके पास
और सख़्ती से देती है उसे आदेश
उनके बढ़ते कदमों को रोकने का
उनमें ठहराव लाने का
इसमें ढूंढना चाहती है ज़िंदगी अपना ठहराव
उनकी आंखों में देखना चाहती है अपना भय
अनभिज्ञ इस बात से कि
भूख की ज्वाला से तपते हुए भी
खुद को जलने से बचाया है
उन्होंने अब तक।
खाली बर्तन के पकवानों से भरा रहने की कल्पना को
बनाया है उन्होंने अपनी दिनचर्या का एक अभिन्न और ज़रूरी हिस्सा
अब तक वे पार कर चुके हैं
कंटीली झाड़ियों, धूल भरे रास्तों को।
कोबरा जाति के कई नागों के डंक
अब भी चुभे हैं उनके पैरों में
उनमें मौजूद स्त्रियों के जिस्मों से ज़्यादा आत्माओं पर हैं कई निशान
नया नहीं,शेष नहीं, कोई भी अनुभव अब उनके लिए
क्योंकि वे हैं खानाबदोश।