भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खामोशियांं / प्रगति गुप्ता
Kavita Kosh से
पसरी हुई खामोशी
क्या कुछ नहीं कह गई...
तब कहीं चुपके से तुझे
छू कर आई हवा
मुझे यूं सहरा गई
कुछ बतला गई
खामोशियांं भी ज़रूरी हैं
बहुत कुछ महसूस करने को
कुछ थोड़ा-सा जीने को
जीने को महसूस करने को...