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खामोश लिफाफों का मौसम / पूनम चौधरी

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कभी खिड़की से झाँकती
सुनहरी धूप मे,
एक चिट्ठी की आहट भी
बदल देती थी
घर का मौसम।
उस नीले लिफ़ाफ़े में
लहराता था
मन का नक्शा,
स्याही की गहराई में,
झिलमिलाते थे भाव—
जैसे नदी ने गुपचुप सुना दिया हो
अपने किनारों का गीत।

डाकघर,
जहाँ दीवार की घड़ियाँ नापती थीं प्रतीक्षा के श्वास,
और
लाल पोस्टबॉक्स,
जैसे बूढ़ा बरगद,
जिसकी जड़ों में दबी थीं लोक कथाएँ,
अनगिनत किस्से और कहानियाँ।

डाक टिकट का चिपकना—
सिर्फ़ कागज़ी दिखावा नहीं,
बल्कि भरोसा था,
 कि यह कागज़ अपनी मंज़िल तक पहुँचेगा,
भले ही रास्ते में
बारिश गिरे
धूप जले,
या
हवाएँ भटकाएँ।
डाकिया —
कभी साइकिल पर
देवदूत-सा लगता था,
जिसकी घंटी सुनते ही बच्चे गेट तक भागते,
और घर की औरतें पल्लू सँभालकर
चिट्ठी लेने खड़ी हो जातीं।

हर लिफ़ाफ़ा एक मौसम था— सावन की फुहार,

जिसमें गीली मिट्टी की,
सुगंध बसती,
जाड़े का ठिठुरता दुख,
जो उँगलियों को भी सुन्न कर देता।
 बसंत की नई नौकरी,
जिसमें सपनों के फूल खिलते।
पतझड़ की जुदाई,
जिसमें पत्ते भी चुपचाप विदा हो जाते।
किंतु अब,
छुपा दिए हैं सब यादों के
अँधेरे संदूकों में,
मन नहीं,
अब स्क्रीन पर दौड़ती है उँगलियाँ,
पर शब्द दिल में नहीं उतरते।
हमने खो दिया है प्रतीक्षा का सुख,
और साथ में वह मीठा ठहराव भी,
जो रिश्तों को गाढ़ा करता था।

आज के संदेश—
त्वरित, चमकते
लेकिन महकते नहीं,
बिना उस कागज़ी सिलवट के,
जो खोलते समय दिल को भी खोल देती थी।
मशीनों के साथ-साथ हमने अपनी चाल भी तेज़ कर ली,
और शायद दिल की धड़कन भी;
लेकिन कुछ आवाज़ें सिर्फ़ महसूस की जा सकती हैं—
जैसे पत्तों का गिरना,
किसी पुराने लिफ़ाफ़े में मोरपंख का खड़खड़ाना,
किसी लिफाफे में रखी सूखी गुलाब की पंखुड़ियाँ

तुम्हारी अनुपस्थिति में,
हम बोलते तो हैं
पर अब नहीं लिखते,
न हीं महसूस कर पाते है,
उन अक्षरो को छूकर
वह बहुत सारा अनकहा,
जो एहसास बनकर तुम्हारे साथ आता था।

अलविदा कागज़ के पंछी,
तुम्हारे साथ ही हम भूल जाएंगे उड़ना,
शब्दों के पंख लगा कर नीले
आकाश में।
अलविदा, ओ स्याही की नदी!
तुममें ही डूबकर
 किनारे तक पहुँच जाती थी,
 हमारी कहानियाँ
और हमारे जज़्बात।

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