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खारो-ख़स तो उठें, रास्ता तो चले / कैफ़ी आज़मी

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खारो-ख़स<ref>झाड़-झंखाड़</ref> तो उठें, रास्ता तो चले।
मैं अगर थक गया, काफ़िला तो चले।

चाँद-सूरज बुजुर्गों के नक़्शे-क़दम<ref>पदचिह्न</ref>
ख़ैर बुझने दो इनको, हवा तो चले।

हाकिमे-शहर, ये भी कोई शहर है
मस्जिदें बंद हैं, मयकदा<ref>मदिरालय</ref> तो चले।

इसको मज़हब कहो या सियासत<ref>राजनीति</ref> कहो
ख़ुदकुशी का हुनर तुम सिखा तो चले।

इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाऊँगा
आज ईंटों की हुरमत<ref>मर्यादा</ref> बचा तो चले।

बेलचे लाओ, खोलो ज़मीं की तहें
मैं कहाँ दफ़्न हूँ, कुछ पता तो चले।

शब्दार्थ
<references/>