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खाली कमरों के बीच / विष्णुचन्द्र शर्मा

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खाली कमरों के बीच है
खाली बसा घर,
जहाँ एक कमरा
दूसरे कमरे को टटोलता है
और खाली घर में चुप्पी बस जाती है ।

बिजली अभी नाच रही थी,
मुखौटे लगाकर एक कमरे में
दूसरा कमरा हँस रहा था ढीठ हँसी
तीसरा कमरा बीते हुए दिनों की चीज़ें उधेड़ रहा था ।

काले मुखौटे पहने तीनों कमरे अब क्या सोच रहे हैं !
मैंने एक दरवाज़ा खोला
और भूल गया इस कमरे का
शृंगानदान कब दर्पण को जगाता है
बस अँधेरे में ग़र्क उस कमरे में
अपने घुटनों को मैंने सावधान किया
और दूसरा कमरा मुझे छोड़ आया तीसरे कमरे तक ।

तीसरे कमरे की खिड़की खोलकर मैं भूल गया अपना घर
सिर्फ़ खिड़की पर रखा
एक उजला काग़ज़
मेरे पस आया
उसमें नाम मेरा था
और हस्ताक्षर पत्नी के थे
मैं अफ़सोस करता रहा यह ख़त मैंने यहाँ
खिड़की पर कब छोड़ दिया था !
बिजली के बीच मैंने देखा तीनों कमरे पढ़ रहे हैं वही ख़त एक साथ
दीवारें झुकी भी हैं और तनी भी
खाली कमरों के बीच बस रहा हूँ अभी मैं ।

रचनाकाल : 1990