भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खाली होते हुए भी / अशोक कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब वह पैदा हुआ था
पहाड़ हरे-भरे थे
पेड़ फलों से लदे हुए थे
नदियाँ भरी-पूरी थीँ पानी से
खेतों में फसलें लहलहा रही थीं

वहाँ जहाँ पैदा हुआ था
वह खाली घर था
अनाज के दानों से
रेशों के कपड़ों से
छत के खपड़ों से

उस घर में जनमते ही
आँगन में तलमलाते पाँव रखते ही
तुतलाती बोली बोलते ही
खाली होने की परिभाषा वह जानने लगा था
और यह भी कि भरे होने का भान देती यह सृष्टि उसके घर का एक टीनही खाली कटोरा है

सनातन चिरंतन भरी-पूरी दिखती दुनिया खाली पैदा हुए लोगों के लिये एक चुनौती है
जो सिमटती है चन्द भरे लोगों के इर्द-गिर्द
और उन्हें धुरी बनाती है

भरी दुनिया के बीच वह अपना खाली कोना टटोलता है
पैदा होने के बाद रोज-रोज जिन्दा रहते हुए
और अपनी दुनिया के बदरंग पहाड़ों में
अपने सपनों में हरे रंग रंगता है
पेड़ों पर फल लादता है
नदियों में पानी
और खेतों में लहलहाती फसलें
भरता है

खाली होते हुए भी वह यह जानता है
हौसलों से भरा होना ज़रूरी है
अपनी खाली दुनिया को भरी-पूरी बनाने के लिये।