खास बात कुछ नहीं कहीं भी / बलबीर सिंह 'रंग'
खास बात कुछ नहीं कहीं भी मगर शिकायत आम है।
इतने बड़े गगन के नीचे कवि ही क्यों बदनाम है॥
वह न जानता बाधाओं से
हार मान कर भागना,
उसको तो है अन्धकार की
बेहोशी में जागना।
देने वाले किस अंजलि से
कवि को क्या दे पायेंगे?
क्योंकि उसे मालूम
कल्पतरु की छाया को त्यागना।
अपनी-अपनी हाट सभी की अपना-अपना दाम है।
इतने बड़ेगगन के नीचे कवि ही क्यों बदनाम है।
मजबूरी को कसकर बाँधा
है उसने भुजपाश में,
धरती का वासी होकर भी
रमता है आकाश में।
आगे बढ़ने वालों की वह
गाता है विरुदावली,
कदम मिलाकर चलने वालों के
रहता विश्वास में।
जोकि आ रहे पीछे उनको, उसका विनत प्रणाम है।
इतने बड़े गगन के नीचे कवि ही क्यों बदनाम है
काल चक्र की गति पर
निज-पग धरने वाला कौन है,
मानवता की उमर बढ़ाकर
मरने वाला कौन है।
नई बात कुछ नहीं पुरानी
दुनियाँ सब को जानती,
कहने वाला कौन यहाँ
और करने वाला कौन है।
मनसा, वाचा और कर्म का अलग अलग अंजाम है।
इतने बड़े गगन के नीचे कवि ही क्यों बदनाम है॥
कौन बुझा पाया है कवि की
कुम्भज जैसी प्यास को,
उससे खुलकर वरण किया है
अभिशापित उपहास को।
सूरज और चाँद निर्देशन
कर पाये दिन रात का,
नई दिशा देता आया कवि
युग युग के इतिहास को।
आने वाला नया सबेरा जाने वाली शाम है।
इतने बड़े गगन के नीचे कवि ही क्यों बदनाम है॥
कवि से परिचित राजद्वार के
कंचन जड़े कपाट भी,
पद दलितों के लिए रही है
उसकी दृष्टि विराट भी।
सुरपुर और नर्क तो केवल
कवि की कोरी कल्पना,
उसके लिए बराबर दोनों
निर्धन और सम्राट भी।
कभी समय अनुकूल किसी के, कभी विधाता वाम है।
इतने बड़े गगन के नीचे कवि ही क्यों बदनाम है॥