भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खिड़कियाँ खोलो, हवा को आने दो / उर्मिल सत्यभूषण
Kavita Kosh से
खिड़कियाँ खोलो, हवा को आने दो
धीरे-धीरे गीत उसको गाने दो
नींद हमसे रूठकर तोवो गई
कोई सोता है उसे सो जाने दो
खिल गया गुल इस कंटीले झाड़ पर
क्या करिश्मा है, इसे मुस्काने दो
खौफ़ ज़द बच्चा है माँ को ढूंढता
गोद अम्मा की उसे मिल जाने दो
आस लेकर आ गया दर पर कोई
आसरा दो, आस को सहलाने दो
खेल कुदरत के, इन्हें मत रोकिये
प्रीत की कलियाँ खिली खिल जाने दो
एक दो पल खुद भी उर्मिल जी के देख
कोई लाता है ये नेमत लाने दो।