भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खिड़की को देखूँ कभी / अभिषेक कुमार अम्बर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खिड़की को देखूँ कभी, कभी घड़ी की ओर,
नींद हमें आती नहीं, कब होगी अब भोर।
कब होगी अब भोरखेलने हमको जाना,
मारें चौक्के छक्के, हवा में गेंद उड़ाना।
कह 'अम्बर' कविराय,पड़ोसन हम पर भड़की।
जोर जोर चिल्लाय,देखकर टूटी खिड़की।
 
(कुण्डलिया छंद)