भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खिड़की पर आँख लगी / सोम ठाकुर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खिडकी पर आंख लगी,
देहरी पर कान।

धूप-भरे सूने दालान,
हल्दी के रूप भरे सूने दालान।

परदों के साथ-साथ उडता है-
चिडियों का खण्डित-सा छाया क्रम
झरे हुए पत्तों की खड-खड में
उगता है कोई मनचाहा भ्रम
मंदिर के कलशों पर-
ठहर गई सूरज की कांपती थकान
धूप-भरे सूने दालान।

रोशनी चढी सीढी-सीढी
डूबा मन
फजीने की मोडों को
घेरता अकेलापन

ओ मेरे नंदन!
आंगन तक बढ आया
एक बियाबान।
धूप भरे सूने दालान।