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खिड़की पर आँख लगी / सोम ठाकुर
Kavita Kosh से
खिडकी पर आंख लगी,
देहरी पर कान।
धूप-भरे सूने दालान,
हल्दी के रूप भरे सूने दालान।
परदों के साथ-साथ उडता है-
चिडियों का खण्डित-सा छाया क्रम
झरे हुए पत्तों की खड-खड में
उगता है कोई मनचाहा भ्रम
मंदिर के कलशों पर-
ठहर गई सूरज की कांपती थकान
धूप-भरे सूने दालान।
रोशनी चढी सीढी-सीढी
डूबा मन
फजीने की मोडों को
घेरता अकेलापन
ओ मेरे नंदन!
आंगन तक बढ आया
एक बियाबान।
धूप भरे सूने दालान।