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खिड़की / किरण अग्रवाल
Kavita Kosh से
उस खिड़की से कोई देता है आवाज़ मुझे
बार-बार
कहता है मत समेटो अपने को
खुल जाओ
बाहर आओ
इस अनन्त विस्तार में घुल जाओ
उतार डालो
एक-एक कर
समस्त आवरण
अपने को अपनी ही नग्नता में पहचानो
बना लो इसको अपनी ढाल
फिर कोई डर नहीं तुम्हें
किसी का डर नहीं तुम्हें
कोई देता है मुझे आवाज़
उस खिड़की से
जो खुलती है अनन्त की ओर