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खिलखिला कर अब हँसो तुम / अमरेन्द्र
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खिलखिला कर अब हँसो तुम,
मन खुले, तो मत कसो तुम !
हैं नियम-बन्धन बहुत ही
विश्व को घेरे-समेटे,
ज्यों, कई विषधर-भुअंगम
नील शावक को लपेटे;
संहिता सुख, पर लगे येµ
कीट फूलों को कुतरते,
पूर्णिमा के चाँद पर, ज्यों
मेघ सावन के उतरते ।
तोड़ कर प्रतिबन्ध सारे,
इस अमावस में रसो तुम !
यह जगत सुन्दर-मनोहर
ईश के वरदान जैसा,
हो विजय की घोषणा में
सोमरस का पान जैसा;
स्वाति विन्दु-सा मधुरतम
जो मिला जीवन यहाँ है,
प्राण का संगीत सुरमय
और लोकों में कहाँ है !
जा किनारे तुम लगोगे,
बीच लहरों में धसो तुम ।