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खिलते देखा / नवीन दवे मनावत

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एक बार कविता को
खिलते देखा
हल की नोंक के नीचे
जिसकी गहराई का अनुमोदन
हुआ है या नहीं,
मैं नहीं जानता

पर खिलने का अहसास जरूर हुआ
वह कविता
अचानक! खिलकर फैल गई
इतनी विशाल
कि शायद ब्रह्मांड के अंतिम छोर तक
और इतनी लंबी
कि शायद आदमी के सिर के अंतिम बिंदू तक
जहाँ उसकी पराकाष्ठा हो

मैंने सोचा यह तालमेल नहीं
बेमेल है।
कविता मुस्कराते हुए बोली
तालमेल तो मेरा है
पर लंबी नहीं हूँ इंसान से
बस केवल बढ़ना चाहती हूँ
हल की नोंक तक
जहाँ स्पर्श हो सके
धरती का, परती का

और
दबा दी जाउ
बैलों के खूर तले
ताकि पनप सकूं, खिल सकूं
तुम्हारे सौन्दर्य हेतु।