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खिलौने तोड़ते, पर तितलियों के नोचते बच्चे/ महेश अश्क


खिलौने तोड़ते, पर तितलियों के नोचते बच्चे
यही कल हो तो कल से कोई उम्मीद क्या रक्खे

अचानक ठहर जाती है हवा गुम-गुम-सी होकर और
खटक जाते हैं जंगल को हरापन ओढ़ते पत्ते।

बना जाता है बॉबी दीमकों पेड़ ही सारा
मगर भालू को आते हैं नजर बस शहद के छतते।

हिरन को सुनके पंचायत ये इक आवाज में बोली
जिसे जंगल में रहना है, भरोसा शेर पर रक्खे ।

क़सीदे हाकिमों के हों कि मलिका के, क़सीदे हैं
असद साहेब भी क्या-क्या सोच के पहुँचे थे कलकत्ते।