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खिलौनों की ख़ातिर मचलते नहीं हैं / कुमार नयन

खिलौनों की ख़ातिर मचलते नहीं हैं
ये बच्चे हैं फिर क्यों उछलते नहीं हैं।

मैं निकला हूँ इसका सबब ढूंढने को
कि क्यों आज कल दिल पिघलते नहीं हैं।

चलो कुछ सवालों को लोगों से पूछें
किताबों से हल अब निकलते नहीं हैं।

बदल जाएंगे बाप-बेटा-बिरादर
विचारों के रिश्ते बदलते नहीं हैं।

पढ़ो पढ़ सको तो इन आंखों को मेरी
अब अहसास लफ़्ज़ों में ढलते नहीं हैं।

मुक़द्दर नहीं ये कहो ज़िद हमारी
कि हम ठोकरों से सम्भलते नहीं हैं।