खुदा की दुनिया में क्या क्या नहीं है / मनोज अहसास
खुदा की दुनिया में क्या क्या नहीं है
हमारी आस को खतरा नहीं है
खुदा से यूँ हमे शिकवा नहीं है
उसे हमने मगर देखा नहीं है
किसी के हाथ में चुभती है चाँदी
किसी के हाथ में चिमटा नहीं है
बदलते दौर में उस घर का नक्शा
गली के मोड़ से दिखता नहीं है
बिखरकर खो गए यादों के मोती
हुनर का मुझमें ही धागा नहीं है
दुआ में और क्या मांगूं मैं या रब
उन्हें मुद्दत से बस देखा नहीं है
उतर आती है ज़न्नत भी ज़मी पर
मगर बिछड़ा खुदा मिलता नहीं है
भटकता है तेरी चाहत में जोगी
तेरी महफ़िल में क्या चर्चा नहीं है
चलें भी आयें वो एक रोज़ शायद
समंदर से बड़ा सहरा नहीं है
जिसे अंधी तलब है जिंदगी की
हकीकत में वही ज़िंदा नहीं है
निगाहें दूर तक करती हैं पीछा
तुम्हारे आने का रस्ता नहीं है
सुना है सब्र की मंज़िल है मीठी
हमारे पास पर नक्शा नहीं है
नज़र आ जाता है सहरा में दरिया
सलीके से कोई प्यासा नहीं है
नहीं है उसको अब मेरी तमन्ना
मुझे भी दर्द अब उतना नहीं है
उसी की याद में आँखे हैं रौशन
उसी के नाम का कतरा नहीं है
ज़माने ने मुझे तोडा है इतना
वो मेरे दिल का अब टुकड़ा नहीं है
थे उसपे बेअसर सब लफ्ज़ मेरे
सो खत में कुछ भी तो लिक्खा नहीं है
ख्यालों में है तेरे गम की सूरत
बयां करने को पर मिसरा नहीं है