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खुद एक पहेली / संतोष श्रीवास्तव

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मैं वैसा ही जीवन
जीना चाहती रही
जो मेरी उंगलियों की पोरों पर
उलझन बनकर न रहे
सुलझता रहे
कोई गांठ न पड़े

रंगों का हिसाब भी रहे
मेरा पसंदीदा
नीला ,गुलाबी ,
बैंजनी और पीला
नहीं सिंदूरी रंग
कभी चाहा नहीं
पर फिर भी लुभाते रहे
सिंदूरी प्रतिबिंब
न जाने कैसे सिंदूरी रंग
पहेली बनता गया

जब भी उसे सुलझाने
उसमें उतरी
वीरान गहरी घाटियों में
समाती रही
जहाँ अंधकार मुँह बाये
अपनी गिरफ्त में लेने को
आतुर था
बहुत बचाना चाहा अपने को
नहीं बचा पाई
अंधकार में खोते हुए
खुद एक पहेली बनती गई