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खुद के हाथों ही खुशियाँ मिटाते बहुत / रंजना वर्मा

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खुद के हाथों ही खुशियाँ मिटाते बहुत
कुछ किये बिन हैं बातें बनाते बहुत

है समन्दर निगलता सभी कुछ मगर
हम नदी में हैं कचरा बहाते बहुत

है हमे वृक्ष देते सदा जिंदगी
किन्तु हम जंगलों को मिटाते बहुत

सब कुँए बावड़ी लुप्त हैं हो चुके
स्वप्न उनके अभी भी लुभाते बहुत

हम जलाते पुआलों के पूले रहे
रात दिन यूँ प्रदूषण बढाते बहुत

बन के सपना न रह जाएं झरने नदी
प्यास के स्वप्न हैं अब सताते बहुत

साँस लेना भी है अब तो दूभर हुआ
हम हवा में जहर हैं मिलाते बहुत