खुद को क्या-क्या नहीं बतलाता है
पर वो आइने से घबराता है
पट्टियाँ हों न अगर आँखों पर
कौन देखें हमें भटकाता है
वो जो जंगल से शहर आया था
आदमी-आदमी चिल्लाता है
इतनी चुप्पी है कि हर शख़्स यहाँ
अपनी आवाज़ से घबराता है
ख़ूब बारिश हो बला से उनकी
जिनके हाथों में यहाँ छाता है
कोई दीवार कहीं उठती है
आदमी मात वहीं खाता है
लोग कहते हैं फ़साना रो कर
और ‘परवेज़’ ग़ज़ल गाता है