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खुद को पाने निकल गया हूँ मैं / सुरेन्द्र सुकुमार
Kavita Kosh से
ख़ुद को पाने निकल गया हूँ मैं।
गिरते-गिरते सम्भल गया हूँ मैं।
चाहतें ले गईं गुनाहों तक,
हाय, कितना फिसल गया हूँ मैं।
ख़ुद को देखूँ तो तू नज़र आए,
तेरी सूरत में ढल गया हूँ मैं।
दिल में महफूज़ ही मुझे रखते,
होंठ पे आके जल गया हूँ मैं।
मुद्दतें हो गईं यही सोचूँ,
तेरी गलियों में कल गया हूँ मैं।