भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खुद मैं हूँ कि तू या तेरा धोखा है, कोई है / निश्तर ख़ानक़ाही
Kavita Kosh से
खुद मैं हूँ कि तू या तेरा धोखा है, कोई है
कहता हूँ नहीं है तो निकलता है, कोई है
तन्हाई की ये शब कि ख़ुदा तक नहीं लेकिन
दिल फिर भी अँधेरे में यह कहता है, कोई है
ये रात कि पत्तों से चमकती हुई आँखें
ये दश्त कि हर गाम ये खटका है, कोई है
क्या जाने ये है कौन मेरे दर-पए-आज़ार
मिचती है कभी आँख तो लगता है, कोई है
है कोई कि इक पल के लिए आके झलक दे
ख़ाली मेरी आँखों का दरिचा है, कोई है
इक बूढ़ा भिखारी था कि आया नहीं, कल से
फिर कौन मेरे दर पे ये चीखा है, कोई है