खुद से मफ़र की राह मिरी ज़ात में नहीं / रमेश तन्हा
खुद से मफर की राह मिरी ज़ात में नहीं
दरवाज़ा कोई गुम्बदे-हालात में नहीं।
फिर झपकियां सी लेने लगा बूढा आसमां
फिर एतदाल गर्दिशे-हालात में नहीं।
औरों की बात छोडिये, औरों से क्या गिला
पहली सी बात खुद मिरे जज़्बात में नहीं।
ग़फ़लत कहें इसे कि दें बेदारियों का नाम
अब वो खुलूसे-क़ल्ब मुनाजात में नहीं।
तू सुन सके तो मैं भी कहूँ कुछ जवाब में
लेकिन वो इज़्न तेरे सवालात में नहीं।
अपने ही कत्ल में जो हो शामिल मिरी तरह
किरदार कोई ऐसा हिकायात में नहीं।
रंगे-शफ़क़ कोई न कोई आबजू-ए-खूं
आबे-हयात खैर से जुल्मात में नहीं।
यूँ ही बनाते जाओ ख़लाओं में दायरे
कोशिश में है जो बात वो शुबहात में नहीं।
मौसम की याद में ही चलो कोई गीत गाएं
माना कि अब के वो मज़ा बरसात में नहीं।
आठों पहर की गोया मुसल्सल बहार है
जो हिज्र में मज़े हैं, मुलाक़ात में नहीं।
हैं मेरे नाम धूप, शफ़क़, चांदनी, सहर
ग़म का वजूद मेरी रिवायत में नहीं।
जैसे कि मैं सिरे से ही चीज़े-फ़िजूल हूँ
जैसे कि कोई बात मिरी बात में नहीं।
'तन्हा' तिरा यूँ लौट के आना बजा सही
लेकिन कहीं उदू तो कोई घात में नहीं।