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खुद से ही डरती थी वो / निधि सक्सेना
Kavita Kosh से
खुद से ही डरती थी वो
डरती थी अपने भीतर चल रहे संग्राम से
अपने भीतर चल रहे प्रतिशोध से
अपने भीतर के मौन से
अपने अभिमान से
अपनी उमंगो से
उसे ज्ञात था
जिस क्षण उसने ये डर त्याग दिया
उस क्षण उसके भीतर की अग्नि
हर भ्रान्ति को ध्वस्त करेगी
प्रेम और कर्तव्यों की समिधा में
ख़ुशी ख़ुशी स्वयं को होम करना है
यही उनींदी रातों की प्रतिज्ञा थी
इसलिए खुद को हराना
खुद से हारना
और फिर मुस्कुराना
यही शगल था उसका.