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खुरदुरी हथेलियों में उगा नया ग्लोब / मृदुला सिंह

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रीता ऑटो वाली मिली थी
जब पहली बार
उस रात उसकी पहली सवारी थी मैं
उसने दिखाई थी मुझे
जीवन की कुछ परछाइयाँ
चौक चौराहों से भागती स्ट्रीट लाइटों के बीच

सादा दुपट्टा ओढ़ लूं
और मौन हो जाऊँ
उसके रचे एकांत को नियति समझ लूँ
चलती रहूँ जीवन की
अंधी पगडंडियों पर
मुकर्रर हुआ था यही
उसकी आखिरी सुनवाई में

सड़क पर नजरें जमाये
दोनो हाथों से हैंडिल पकड़े
यह बताते उसे नहीं था कोई विषाद
बल्कि सुनहरा तेज था सांवले रंग पर
पानी के प्रिज्म से टकराकर
पड़ी हों जैसे धूप की किरच
वह स्त्री नहीं
सप्तवर्णी चिड़िया नजर आई मुझे

ठोस इरादों वाली औरते काटती हैं इसी तरह
वर्जनाओं की बेड़ियाँ बिना उदास हुए
समय की मार सहते
जो नहीं टूटतीं
वे बचा लेती हैं अंतस के गीत
उड़ने नहीं देतीं दुपट्टे का हरा गुलाबी रंग
रेत होते सपनों पर
रोपतीं है चुटकी भर उम्मीद
ऐसी ही औरतों की आँख में बसंत ठहरा है
जहाँ पीले फूल उमगते रहते हैं

अपने भविष्य का हरापन बचा पाना
अकेली औरत के लिए कोई खेल नही
हर पल धोते रहना है उसे
मन की खारी परतें
लड़ती रहना है नर पिशाचों से

खुद के पैरों खड़ी
ओ! नये युग की औरतों
देखो! अपनी खुरदुरी हथेलियाँ
उग आया है उन में एक नया ग्लोब
भोर चल कर आ रही है
तुम्हारे जागने से
सुनो उसकी मद्धिम पदचाप
सब सुनों