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खुलता नहीं, वो उसका रवैया अजीब है / मंजूर हाशमी
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खुलता नहीं, वो उसका रवैया अजीब है
मेरे क़रीब है कभी उसके क़रीब है
घर से निकल पड़े हैं, तो क्या दश्त, क्या चमन
अब रास्ता है, और हमारा नसीब है
अब तो मिरे बक़ा<ref>अस्तित्व</ref> की ज़मानत-सी हो गयी
यूँ तो फ़क़त दुखों की अलामत सलीब है
जब अपने आप से भी बहुत दूर हो गये
तब ये पता चला कि वो कितना क़रीब है
यूँ देखिए तो कोई बड़ी बात भी नहीं
पर सोचिए, तो वाक़या कितना अजीब है
लाखों बरस की अपनी विरासत के बावजूद
आदम-नज़ाद<ref>आदम का वंश</ref> आज भी कितना ग़रीब है
शब्दार्थ
<references/>