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खुलती ही नहीं आँख उजालों के भरम से / मयंक अवस्थी

खुलती ही नहीं आँख उजालों के भरम से
शबरंग हुआ जाउँ मैं सूरज के करम से

तरकीब यही है उसे फूलों से ढका जाय
चेहरे को बचाना भी है पत्थर के सनम से

इक झील सरीखी है गज़ल दश्ते-अदब में
जो दूर थी, जो दूर रही, दूर है हम से

आखिर ये खुला वो सभी ताज़िर थे ग़ुहर के
जिनके भी मरासिम थे मेरे दीदा-ए-नम से

क्योंकर वो किसी मील के पत्थर पे ठहर जाय
क्यों रिन्द की निस्बत हो तेरे दैरो-हरम से

ये मेरे तख़ल्लुस का असर मुझ पे हुआ है
अब याद नहीं अपना मुझे नाम कसम से