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खुलपित / गिरधारी लाल 'कंकाल'

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मेरी विचारी तिन जीवन मा
खैरी ही खैरी खैने॥

रात नि खुल्दी घास पाणि कै, तू पुगड़ों<ref>खेत</ref> मा जान्दी
भूखी-तीसी-थकीं-पितीं, दवफरम घौरउ आन्दी,
रुखा सूखा द्वी गफ्रा<ref>कौर</ref> खाया, बोणूं फिर चली जान्दी,
घासै-बिठगी, लखड़ा गडोली, ढै ढै मण की लान्दी,

उकलि<ref>चढ़ाई</ref>-उन्दारी<ref>उतार</ref> कटदी-नपदी
जीवन का दिन गैने॥

जीबन घिसिगे माटे दगड़ी, भाग बिदेसू ही रैगे,
जौंकि कुयेड़ी सैरी मंथा, सौंण बाखदो ऐगे,
ओल पचैन तिन रुड़यूं<ref>गर्मियों</ref> का, पूसौ देखे फालो,
दिन-द्वफरा भी गैंणा गणन, उज्यलो बेखी कालो,

रैगे लौंकी जिकुड़ि कुयेड़ी,
आंखि भ्वरीं ही रैने॥

कागा बसदा, ब्बल्दी आला, लोलि<ref>बेचारी</ref> आग भी भभरान्दी,
रोज ससेंई मौन बुथ्योन्दी, चिट्ठी ही ऊंकी आन्दी,
भुंचे गई तू सोच फिकरमा, जीवन का दिन कम होन्दा,
मोरि नि सकदी, बिग्चि नि सकदी, आख्यूं का खुलदन-च्यूंदा,

सौंजड़या तेरी क्वी परदेसू
क्वी अपड़ा मैतू ऐने॥

शब्दार्थ
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