भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खुला आकाश भी था सामने माक़ूल मौसम था / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
खुला आकाश भी था सामने माक़ूल मौसम था
मगर अफ़सोस है उड़ने का उसमें हौसला कम था
बहुत मुश्किल था करना फ़ैसला हम किस तरफ़ जाते
किसी के घर में ख़ुशियाँ तो किसी के घर में मातम था
कोई हलचल नहीं थी और सब ख़ामोश बैठे थे
कहीं पर धूप ज़्यादा थी, कहीं वातावरण नम था
किसी को गर समझना हो तो उसको पास से देखो
जिसे फ़़ौलाद समझा था वो रेशम से मुलायम था
उसी को मैं चला था आज अपनी शान दिखलाने
कि जिसके सामने रक्खा मेरे बचपन का एलबम था
करोड़ों नवजवानों को मगर कल ख़्वाब में देखा
किसी की जेब में कट्टा,किसी के हाथ में बम था
किसी सरकार के हाथों में ताक़त की कमी थी क्या
मगर चोरों, लुटेरों के कलेजे में कहाँ दम था