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खुला रहने दो / रांगेय राघव
Kavita Kosh से
गगन निविड़ घाटी
मुझे मिली भूमि
सघन माटी;
उगी कली बंद,
जीवन का छंद
रस-लहरी साकार,
गंध निराधार,
बहता है
अनदेखा समीर,
काल-कुहर स्पर्श,
पर अधीर,
खुलो अब पंखुरी,
रागिणी मृदु-सुरी,
माधुरी !!
सब कुछ खो जाए,
मेरे पास रह जाए—
दूब पर झलकती
ललकती
ओस-सी
रूप की धुरी !!