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खुली खिड़की / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र

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खुली खिड़की
और भीतर
हवा आई कई बरसों बाद

बंद घर था - धूप भी बाहर रही थी
कथा घर की रही बरसों अनकही थी

किसी कोने में
पड़ी थी
किन्हीं पुरखों की अधूरी याद

याद में थी रामधुन - थे भजन-गाने
किन्हीं बच्चों की हँसी के थे बहाने

खुला आँगन
खुले हिरदय -
तब नहीं था हुआ घर यह माँद

अक़्स कौंधा है किसी का आयने में
खिली कोंपल पेड़ के बूढ़े तने में

हँसी ड्योढ़ी
हँस रहा दिन
जग रहे पिछले कई आह्लाद