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खुली रखूंगा मैं कमरे की खिड़कियाँ कब तक / हनीफ़ राही
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खुली रखूंगा मैं कमरे की खिड़कियाँ कब तक
इधर से गुज़रेगा ख़ुश्बू का कारवाँ कब तक
मुसाफ़िरो पे ये रस्ता हो मेहरबाँ कब तक
ज़मीन थक गई पहुँचेगा कारवाँ कब तक
लिबासो-जिस्म पे गर्दे सफ़र तो ठहरेगी
रखूँ सम्भाल के मुट्ठी में कहकशाँ कब तक
ज़मीन रोज़ ये मुझसे सवाल करती है
तुम्हारे सर पे रहेगा ये आसमाँ कब तक
सिखा दो अपने चराग़ों को आँधियों की ज़ुबाँ
रहोगे ऐसे हवाओं से बदगुमाँ कब तक
मैं बंद कमरे में तन्हाई से जला हूँ मियां
सड़क पे आयेगा इस जिस्म का धुआँ कब तक
वो नींद लगने से पहले मुझे जगाता है
करूँ मैं अपनी थकन को भी रायगाँ कब तक
ये बात सच है फ़रिश्ता सिफत नहीं हूँ मैं
बढ़ा चढ़ा के लिखें मेरी दास्ताँ कब तक