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खुले दरवाज़े से / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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मेज़ पर पड़े पत्थर में पड़ गयी है दरार
तीलियों भरी डिबिया
ढेर सारी राख
और लम्बी-चौड़ी धुआँधार बातें

इसी तरह बिखेरकर

तीनों छोकरे उठ खड़े हुए और बाहर निकल गये।

उनकी ओट छँट जाते ही
सामने
खुले दरवाजे़ के फ्रेम से
एक तस्वीर उभरी-
ज़रा-सी हिलती, ज़रा-सी ठहरी-

चोंच में तिनका दबाये एक बूढ़ी मैना
बैठी है मुँडेर पर
गर्दन के रोयें फुलाकर,
देख रही आँखें नचा-नचाकर

लैम्पपोस्ट की सूली पर
देखो, लैम्पपोस्ट को
जहाँ फाँसी पर लटकी है
पुराने इश्तिहार वाली कटी-फटी टाट
उसके नीचे
गद्दी पर बैठा है पग्गड़ बाँधे
सदाबहार तबीयत वाला एक आदमी

रास्ते पर ग़श्त लगानेवाला एक जमादार
गाड़ी पर उठा ले गया
एक ज़ोरदार माल

सिर के ऊपर एक लम्बी-सी लाठी उचकाये
गोद और काँख में बच्चों का हुजूम लिये
गुज़र गयी एक ट्राम

उसका पीछा तेज़ी से करती चली गयी-काफ़ी देर तक
टेढ़ी-बोकची
तार की देह से झूलती
छी...
छी...
करती चलती रही
एक रिरियाती आवाज़

बैरे के
मेज़ साफ़ करते-करते
उस दियासलाई के हिलाते ही
अन्दर की तीलियाँ एकबारगी झनझना उठीं-
आजकल के लड़कों में एक बड़ा भारी ऐब यह भी है
कि वे बहुत जल्दी भूल जाते हैं

एक दोमंज़िली बस
घड़ी भर रुककर
गुज़र गयी
खिड़की से टुक झाँकता एक प्यारा-सा चेहरा दिखा।
अब मुँडेर पर वह मैना भी रही नहीं
लैम्पपोस्ट पर अब भी
सबके सामने फाँसी पर चढ़ी है
पुराने इश्तिहार वाली कटी-फटी टाट

उसके नीचे
काफ़ी देर से खड़ा है एक आदमी
इतनी देर तक देखते रहने के बाद भी
मैं तय नहीं कर पाया,
सादी वर्दी में वह कोई पुलिस का बन्दा है
या कोई जेबकतरा-

तभी सीटी बजी...हुँश...!
और तीन अधेड़ आदमी
लैम्पपोस्ट की ओर पीठ किये
सामने की मेज़ पर आ बैठे

मेज़ पर फिर एक माचिस पड़ी है
और दूर खड़ा है लैम्पपोस्ट...

अब यह देखने के लिए
कि ये अधेड़ लोग चीज़ों को भूल जाते हैं या नहीं-
मैंने चाय का दूसरा प्याला मँगा लिया।