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खुल गई आँख फ़िरासत का खुला दरवाज़ा / ज़ाहिद अबरोल
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खुल गई आंख फ़िरासत<ref>दक्षता,प्रवीणता</ref> का खुला दरवाज़ा
हम पे जिस दिन भी कोई बंद हुआ दरवाज़ा
जिस को चाहूं उसे तस्वीर बना कर रख लूं
एक कैनवस से नहीं कम यह मिरा दरवाज़ा
ख़्वाब तो ख़्वाब था खिड़की ही से आना था उसे
शब<ref>रात</ref> को जागा भी तो शर्मिन्दा हुआ दरवाज़ा
मेरी आंखों में तो आंसू थे न कुछ देख सका
दूर तक पीठ तिरी तकता रहा दरवाज़ा
झांक आते हैं मुहल्ले की वो हर खिड़की से
भूल जाते हैं मगर अपना खुला दरवाज़ा
“ज़ाहिद” उम्मीद लिए हल्की सी इक दस्तक की
रात भर जलता रहा बुझता रहा दरवाज़ा
शब्दार्थ
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