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खुश्बुओं को जहाँ तुम चले हार के / ललित मोहन त्रिवेदी
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ख़ुश्बुओं को जहाँ तुम चले हार के !
थे वहीं पर बहुत पेड़ कचनार के !!
आरहा है घटाओं का मौसम मगर !
झेल थोड़े से तेवर भी अंगार के !!
इक थपेड़े ने आकर कहा नाव से !
कितने थोथे भरोसे हैं पतवार के !!
डूबना ही मुक़द्दर में जब तय हुआ !
देखलें हौसले हम भी मझधार के !!
फेर लेते हैं नज़रें मुझे देखकर !
क्या अनोखे हैं अंदाज़ दीदार के !!
आप जिनको मशालें समझते रहे !
हाथ में झुनझुने थे पुरस्कार के !!
देखते हो सदा क्यों कड़क बिजलियाँ ?
देखना सीख झोंके भी बौछार के !!
सर के बदले में मंहगी नहीं ज़िंदगी !
तुमको आते नहीं ढंग व्यापार के !!
मंज़िलें हैं कहाँ ये पता ही नहीं !
सिर्फ़ आदी हुए लोग रफ़्तार के !!