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खुश-बू / कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह

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तुम्हारा नाम क्या है, चम्पाकली?
मतलब
जिस जंगल को
तुम्हारी खुश-बू रात-रात भर जगाए रहती है,
उसका ?

जिस पेड़ से लिपटकर
अपनी तन्हाई दूर करती हो,
जिस पत्थर के टुकड़े को प्यार से उठा लेती हो,
जिस फल को अपने होठों से लगने देती हो,
जिस झरने को
अपने में भर लेने के लिए बाँहें ऊपर उठाकर दौड़ती हो -
सब किस नाम से जाने जाते हैं?

अपना नाम कोई नहीं बताता -
सब मेरे छौने को चूम कर मेरा ही नाम पूछते हैं,
किसी का नाम मैं क्या जानूँ !
जब मैं सुग्गे के पास होती हूँ
माँ सुग्गा कहकर हँकाती है,
टाँगी उठाकर बन में लकड़ी काटने निकलती हूँ
तो बाबा टाँगी कहता है,
जूड़े में खोंसने के लिए
टेसू का फूल लेने चलती हूँ
तो सखियाँ टेसू कहकर छेड़ती हैं,
और जब महुवा बीनती रहती हूँ
पिछवाड़े का मादल महुवा कहकर बुलाता है।
जंगल-जंगल
इस तरह निश्शंक घूमनेवाले
                वो करैत,
दया करके अपना विष मुझ पर मत उतारना –
ठीक से पता करके कभी अपना नाम बता दूँगी।

मोजर की गन्ध की तरह
मेरे मन-प्राण पर छायी रहनेवाली
                  वो कस्तूरी,
तुम्हारे थिरकते इशारों पर
कमर से मादल बाँधकर
जो नाचने के लिए दल में खड़ा हो जाता है,
जो हाथ में चमकती टाँगी लेकर
जंगल का रात्रि-संगीत सुनते हुए
तुम्हारे साथ दूर-दूर तक निकल जाता है,
मधुआयी रात में
जिस सागौन की बाँह पकड़ अपनी मचान पर चढ़ जाती हो,
जिसके आलिंगन में बँधने पर
तुम्हारे अन्दर की बाँसुरी सातों सुरों में बज उठती है
उसे तुम किस नाम से पुकारती हो?

गंध-भार के कारण
पलकें ऊपर नहीं उठतीं,
और नीली गहराइयों से संवाद बन्द कर देती हूँ।
कहीं कोई इशारा नहीं होता
और न कोई मादल होता है।
टाँगी लेकर
मेरे साथ कोई जंगल में भी नहीं निकलता,
और न किसी की बाँह पकड़कर
कभी अपनी मचान पर चढ़ती हूँ।
मेरी छाया हरदम साथ लगी होती है
और अन्दर की वंशी
अपने-आप बजती रहती है।
पीपल के ललछौंहे पत्तों पर
भोरे-भोरे चमक उठनेवाले वो मेरे सूरज,
इस तरह अनजान क्यों बनते हो !

जिस सुग्गे को सुबहे-सुबहे दाना चुगाती हो,
जिस मेमने को प्यार से बाँहों में उठा लेती हो,
जिस महुवे के नीचे खड़ी होकर
चाँदनी में
नहाती रहती हो,
जिस डगर को पकड़कर
अपने खेत पहुँचती हो-
और वहाँ जिस पौधे को सहलाते हुए
अपने आप से चिहुँक उठती हो -
उन सबको मैं जानता हूँ,
और उनसे उतना ही प्यार करता हूँ।
मगर जो काँटा पाँव में चुभकर
तुम्हें रास्ते में रोक लेता है,
और जिसकी साँसों के तार में
देर-देर तक बँधी रह जाती हो
उसे मैं नहीं जानता - उसका नाम क्या है?

उसकी माँ बड़ी जोगाह है –
कभी उसका नाम जबान पर नहीं लाती।
और किसी की नजर न लग जाय,
इस डर से
हमेशा
उसे गोदना में छिपाकर रखती है।
वो हिरना बड़ा प्यारा है।
ओ मेरे जंगल के राजा,
तुम्हें अपनी रानी की -
रानी की साँसों में बसी चन्दन की गन्ध की कसम –
उस पर
कभी अपने पंजे सीधा मत करना !

जामुन के रस की तरह
मेरे हलक के नीचे
अपने मधुर सुरों को उतारते रहनेवाली
               ओ बाँस की बाँसुरी,

जहाँ
तुम्हारा नृत्य चलता है
वहाँ
चाँद के पीछे-पीछे
झुरमुट से
मैं भी पहुँचता हूँ।
और जैसे जंगल की चैती खुश-बू
वैसे ही
तुम्हारा अंग-अंग चूमता हुआ
तुम्हें जगाए रहता हूँ।
तुम
मादल की थाप पर
बेसुध हुई रहती हो
और मैं
बाँसुरी के स्वर में मिलकर
पलाश की मीठी आग की तरह
तुम्हारे अन्दर जलता रहता हूँ।
तुम्हारी तमाम हँसी-खुशी -
तुम्हारी किलकारियाँ छीन लेनेवाला
तुम्हारा शत्रु
इसी जंगल में छिपा है।
और आज
किसी भी चीज से पहले
तुम्हें आग की जरूरत है।
मगर तुम अभी
इस जंगल में आग लगाने से
क्यों घबड़ाती हो?
तुम्हारा शत्रु तुम्हारे इसी जंगल के रस पर पलता है -
अभी इस जंगल का मोह छोड़ना होगा।
ओ कदम्ब की फूली हुई टहनी,
जब इस जंगल में आग लगाने का निर्णय हो,
मुझे याद करना -
मैं तुम्हारे लिए जलकर
आग हो जाने को तैयार हूँ।

इस जंगल में मेरा सुअना रहता है
मेरा मेमना मेरे साथ खेलता-कूदता है,
मादल है,
वंशी है,
तीर-धनुष और टाँगी है।
ओ मेरे पंडुक,
तुम नहीं समझ सकते –
कैसे आग लगा लूँ
    इस जंगल में!
और तुम्हें जलते देखकर
यह पलाश-वन भी कैसे खड़ा रह सकेगा !
मादल और वंशी को,
तीर-धनुष को और टाँगी को
फिर क्या जवाब दूँगी !
नहीं मेरे साहिल, नहीं!
जंगल को जला डालने के लिए
मेरे अन्दर की आग ही काफी है-

तुम

सिर्फ सुअना और मेमना को,
मादल को और वंशी को,
तीन-धनुष और टांगी को बचा लेना।
फिर,
जो फूल माँगोगे,
दूँगी -
और तुम्हारे नाम से
एक नया बिरवा लगा लूँगी !

21 मई '85