भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खूँटी पर टंगी जिंदगी / अमित कुमार अम्बष्ट 'आमिली'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ठिठुरती शरद रात को
मरघट के सन्नाटे में
जल्दी जल्दी में जब
अधजली चिता छोड़
लौट जाते हैं परिजन,
रात्रि पहर कुत्तों का रुदन
कराता है पुनः
किसी अपशगुन की आशंका;
दांतों से सूखी मिर्च काटकर
लौह स्पर्श के बाद
अपनी शुद्धता को आश्वस्त कर
होते हैं हम घर में दाखिल
रिश्तेदारों के अफसोस
और विमर्श के बीच
किसी कोठरी के कोने में
सुबक सुबककर भर्रा जाता है
किसी का गला,
पथरा जाती हैं आंखें,
सफेद लिबास में कैद
और चूड़ियों की कैद से मुक्त!
आसमां पर खिंचे इंद्रधनुष को
बादलों से ढँकते
कोई अपलक निहार रहा होता है
अब तक सहेजकर रखी जिंदगी को
खूँटी पर टांग देने के लिए