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खूब जलेॅ तन-मन; कोय दुख नै / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय

खूब जलेॅ तन-मन; कोय दुख नै।

जत्तेॅ तपतै माँटी-धरती
ओत्तै हरियैतै ई परती
की किताब, जेकरा आमुख नै।
खूब जलेॅ तन-मन; कोय दुख नै।

प्राण जलेॅ तेॅ लोरो बरसै
आय नै तेॅ कल जिनगी हरसेॅ
भले अभी सोनोॅ के रुख नै
खूब जलेॅ तन-मन; कोय दुख नै।

साथी साल भले नै हमरोॅ
प्राण, सखा के नाम केॅ सुमरोॅ
बिना दुखोॅ के केकरो सुख नै
खूब जलेॅ तन-मन; कोय दुख नै।