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खूशबू थे तुम / दुःख पतंग / रंजना जायसवाल

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नहीं होती
जिसकी कोई उम्र
कद-काठी
जाति-धर्म
दीवारें
और सीमाएँ
खुशबू थे तुम
फूलों-से खिलखिलाते
पक्षियों-से चहचहाते
भर दिया था तुमने
ठूँठ को कोंपलों से
झुठला दिया था
कि इन्सान के जीवन में
नहीं आ सकता
बसंत
दूसरी बार
विदेह होकर
तुम समाए थे
मेरी पूरी देह में
रक्त-मज्जा
मन और आत्मा तक
सजदे में मैं
खुदा की जगह
तुम्हें पाती रही
मंदिरों में सुनती रही
तुम्हारी बंशी की आवाज
चर्च की नीरवता में
उपस्थित रहे तुम मेरे साथ
पर एक दिन
मेरी प्राथनाओं में शामिल होकर
मांग ली तुमने
ईश्वर से एक देह
और देह हो गए
बस देह
देह क्या हुए
हो गए अजनबी
अज्ञात
रहस्यमय।