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खेजड़ा / कैलाश मनहर
Kavita Kosh से
अनुकूल मौसम में पनपते हैं कीट
प्रतिकूलताओं में नष्ट हो जाते हैं
नहीं कहीं भी नहीं है जल
दृष्टि सीमा से भी दूर
हर ओर
पसरी हुई है अथाह रेत
कहीं भी नहीं है जल, या जल की सम्भावना
इस मरूस्थल में
किन्तु पूरी दृढ़ता से खड़ा है
हरियल खेजड़ा
सूरज की ज्वाला को मुँह चिढ़ाता
बादलों को अँगूठा दिखलाता
रेत के प्रेमपाश में बँधा
मुस्कुराता वह
आग में से जल निचोड़ने वाला पारखी
पूरी दृढ़ता से खड़ा है
जलहीन मरूस्थल का जीवन, ऋषिवत्
समय, तेरी चुनौती स्वीकार है हमें
दिशाओं को कर सकता है अपने अधीन
किन्तु हम भी
ख़ूब जानते हैं दिशाओं के द्वार खोलना