खेतन की बहा / हरगोविन्द सिंह
का कहिए खेतन की बहार,
मन होत मगन सोभा निहार,
बलिहारी पिरथी-पुत्रन की जुन रकत-पसीना रहे गार।
नाठर-कुनकुट गुलजार करत
ऊ पुरसारथ की बलिहारी,
कंचन के झुमका उठा-उठा
जै बोल रही क्यारी-क्यारी,
ककरीले काबर की काया बन जात मार, बिलसत कछार।
मिहनत की महिमा है अपार,
छुनछुना उठत सन कौ गहनां
टिलवा के ऊँचे मूँड़ा पै,
मुतियन की लरें लिपट जातीं
जुंडी रानी के जूड़ा पै;
भर माँग सुहागिन-सी धानें दै जातीं मंगल समाचार।
आ जात चना पगिया सम्हार।
चमचमा उठत नीली-नीली
अरसी को सारी चटकीली,
कुछ बोल चलत रस घोर चलत,
बटरा की अँखियाँ सरमीली,
राई-सरसों, गौहूँ-पिसिया, झूमत गल-बहियाँ डार-डार।
बारी खेती के सै सिँगार।
केकी बाँहन कौ बल पाकै
गचगचा उठत इसकरी अर्हर,
रसभरी बर्हाई के पोरा
बन जात चीकने सुधर-सुघर;
नित नई नुनाई कूँड़न सें, कढ़ परत किबरियाँ टार-टार।
धूरा में हीरन कौ सिहार।
केकी गुनभरी तपस्या सें
कुदवन की कँदिया किलक उठी,
को सकुन्तला-सी बछवन खें
दै चली समा फिर मुठी-मुठी
अनुराग बसो बैरागिउ में, सग चलो कि है संसार सार।
साजौ घर सें सौ गुनों हार।